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Wednesday, March 16, 2011

कैंसर ने जीवन के प्रति नजरिया ही बदल दिया

मुंबई. लीसा रे और कनाडा के जाने माने रईस डब्ल्यू ब्रैट बिल्सन कभी भी शादी कर सकते हैं। जैसा कि आप जानते हैं, विदेश और भारत में मॉडलिंग और फिल्मों में काम कर चुकी लीसा रे मशहूर अभिनेत्री हैं और भले ही उन्होंने कोई सुपरहिट फिल्म नही दी हो मगर उनका नाम फिल्मों से ज्यादा दूसरे कारणों से और वह भी अच्छे कारणों से मीडिया और फिल्मी दुनिया में ले जाता है।
लीसा रे आज से एक साल पहले तक जानती भी नहीं थी कि वे जिएंगी या नहीं और उनकी भाग्य रेखा में कितनी आयु लिखी हुई है। कैंसर में सबसे खतरनाक कैंसर माने जाने वाले बोन मरो कैंसर की अचानक तीस साल की उम्र में शिकार हो गई लीसा लगातार कीमोथैरेपी और रेडियोथैरेपी के अलावा अपनी हड्डियों में मैरो यानी मांस बदलवाने और खून चढ़वाने में व्यस्त रहती थी और इस पर भी सबसे कमाल की बात यह थी कि उन्होंने हार नहीं मानी थी। इंटरनेट पर उन्होंने कैंसर के शिकारों और इसके बारे में जानने वालों का एक समूह बनाया था और एक साइबर डायरी लिखती थी जिसमें अपने सुख दुख और उम्मीदों का पूरा वर्णन होता था। एक बार उन्होंने लिखा था कि मैं भाग्यशाली हूं कि मैं जानती हूं कि मौत कैसे होगी। दुनिया में ऐसी किस्मत कितने लोगों की होती है? मगर मौत ने भी लीसा को धोखा दे दिया। उनकी स्टैम सेल चिकित्सा अचानक सफल हो गई और शरीर से कैंसर के लक्षण कम होने लगे। कैंसर के डॉक्टरों ने जिंदगी में इतनी मौते देखी होती है कि उन्हें उम्मीदों से नफरत होने लगती है। इसीलिए वे भी लीसा रे को बार-बार सावधान करते रहे कि कैंसर घायल नाग की तरह पलट कर आता है और इसमें पांच साल से ज्यादा कोई बच जाए तो ही हैरत होनी चाहिए। लीसा रे सुनती रही और समझती रही। लेकिन जिंदगी के प्रति उनका राग इतना प्रबल था कि वे लगातार पार्टियों में जाती रही और कुछ साल पहले कैनेडा के कैलगरी शहर में एक पार्टी में मिले ब्रैड बिल्सन को भी बहुत अंतरंग पत्र लिख डाला। ब्रैड बिल्सन उम्र में करीब बीस साल बड़े हैं और दोनों में एक ही समानता है कि बिल्सन भी प्रोस्ट्रेट कैंसर से जूझ कर सफलतापूर्वक बाहर निकल चुके हैं और पांच साल वाली जीवन रेखा उन्होंने कब की पार कर ली है। भारत में ही नहीं, दुनिया में ज्यादातर जगहों पर कैंसर होने को सीधा मृत्युदंड माना जाता है। लीसा रे ने इस धारणा को न सिर्फ चुनौती दी बल्कि हरा कर दिखाया। उन्होंने सिद्ध किया कि आप उतना ही जीते हैं जितना जीने की इच्छाशक्ति आपके भीतर होती है। वरना लोग तो बुखार, डेंगू और मलेरिया से भी मर जाते है। लीसा मानती है कि कैंसर ने उनकी जीवन शैली और जीवन के प्रति नजरिया ही बदल दिया है और अब वे पहले की तरह नहीं जी सकती क्योंकि उन्होंने दर्द के जरिए बोध पाया है। ऐसा कम होता है कि सिर्फ चार महीने पहले आपको जीने के लिए अधिक से अधिक एक महीना दिया जा रहा हो और सिर्फ दो महीने बाद आप लॉस एंजिल्स में अपनी हॉलीवुड की फिल्म के समारोह में लाल कालीन पर चलते हुए दिखाई दें और इतना ही नहीं, खुले आसमान में हो रहे इस समारोह में बूंदा बांदी होने लगे तो बाकायदा दौड़ कर इमारत में चले जाएं। यह ताकत शरीर नहीं, आत्मा देती है। लीसा रे की फिल्म के निदेशक दिलीप मेहता अब भी याद करते है कि यह समारोह थिएटर के अंदर करने का ऐलान कर दिया गया था और जब समारोह हुआ तो फिर से कतार में सबसे आगे लीसा ही थी। यहां बोन मैरो कैंसर पर थोड़ी बात हो जाए। सबकी हड्डियों में मांस से मिलता जुलता जैली की तरह कोशिकाओं का एक समूह होता है जिसे संस्कृत में मज्जा और अंग्रेजी में मरो या मैरो कहते हैं। शरीर का सारा खून यहीं से बनता है। यहां कैसर होने का मतलब है कि तुरंत रक्त कैंसर भी होता है और रक्त कैंसर का इलाज आम तौर पर बहुत कठिन होता है। बल्कि इसे तो असंभव ही माना जाता है। अभी कुछ साल पहले तक बोन मरो कैंसर का कोई इलाज था ही नहीं। आज भी किसी समान रक्त समूह के स्त्री या पुरूष से मज्जा ले कर उसे हड्डियों में छेद कर के नियमित तौर पर बदला जाता रहता है। यही प्राथमिक और लगभग अंतिम निदान है। हड्डिया में छेद ड्रिल मशीन से किया जाता है और यह पूरा सिलसिला अचेत करने वाली दवाईयों के बावजूद काफी खतरनाक और दर्दनाक होता है। लीसा रे ने इसे भी झेला। झेलते तो सब हैं मगर लीसा रे इस बात की मिसाल बन गई कि जब काल से होड़ हो तो आत्मा की पूरी शक्ति लगा कर पारंपरिक और समकालीन चिकित्सा के सारे के सारे भ्रमों को नकारा जा सकता है और आखिरकार जीतती तो जीवनी शक्ति ही है। लीसा रे किसी ईश्वर, किसी धर्म ग्रंथ, किसी तीर्थ या किसी चमत्कारिक शक्ति की शरण में नहीं गई क्योंकि वे जानती थी कि अगर कष्ट भीतर से आया है तो उसकी मुक्ति भी भीतर से ही आएगी। इस मायने में लीसा रे बड़े बड़े धर्म गुरूओ से कई कदम आगे है। धर्म गुरूओं में से ज्यादातर तो गड़बड़ और शो मैन निकलते है और गांव, देहातों और अज्ञात आश्रमों में जो धर्म गुरू बैठते हैं और बिना किसी बैंड बाजे के सिर्फ अपनी और स्वयं में दूसरों की आस्था के सहारे जीवन बिताते हैं, वे कभी किसी और की शोभा यात्रा का मजाक भी नहीं उड़ाते और अपनी शोभा यात्रा भी नहीं निकालते। ये वे ग्राम गुरू हैं जो आपको अपने साथ साधना के रास्ते पर ले चलते हैं। इनका यह दावा कतई नहीं होता कि ईश्वर से उनकी सीधी हाट लाइन जुड़ी है और वे आपके सारे दुख और विकार पल दो पल में में ठीक करा देंगे। असली गुरू प्रेरणा स्रोत होते हैं। इस मामले में लीसा रे ने अपने साहस से खुद को प्रेरणा स्रोत बना लिया है। नकार और निषेध का प्रतीक बनने की और कैंसर के चिकित्सा शास्त्र को चुनौती देने की मुद्रा उन्होने कभी नहीं बनाई है और न डॉक्टरों को अंगूठा दिखाया है कि वे कैसे झूठे निकले। लीसा रे आत्मिक शक्ति का प्रतीक, पर्याय और परिणाम है और उन्हे वाकई जीवन का ब्रांड एंबेसडर मान कर चलना चाहिए। ऐसी और भी कहानियां हैं जैसे फिल्मी दुनिया के ही अनुराग बसु ब्लड कैंसर से अस्पताल में रहने और डॉक्टरों से पंद्रह दिन की जन्म पत्री लिखवाने के बाद भी गैंगेस्टर, कोशिश, मर्डर, कुछ तो है, तुम सा नहीं देखा, काइट्स और साया जैसी फिल्में बना चुके हैं और इनमें से तुम सा नहीं देखा तो उन्होंने अस्पताल में कीमोथैरेपी करवाते हुए फोन पर डायरेक्ट की थी।

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